| गर्दन झुकाई नजरें उठाई ज़रा मुस्करा दिया |
| बिना तलवार उसने कितनों को गिरा दिया |
| अक्सर तो ज़िंदगी में दोपहर की सी धूप थी |
| जुल्फों की घनी छाँव ने सबको आसरा दिया |
| छोटा बड़ा अच्छा बुरा नाम क्या बदनाम क्या |
| वक्त के साथ जमाने ने सबको बिसरा दिया |
| दुनिया में अबतक लड़के तो जीता नहीं कोई |
| मुहब्बत करने वालों ने परचम लहरा दिया |
| या तो लोग अपने ही दुश्मन हैं या बेवकूफ |
| हमने मसीहाओं को ही कातिल ठहरा दिया |
| किस खेत की मूली हो तुम आखिर मिसिर |
| रोटी की फिकिर ने सबको यहाँ घबरा दिया |
भगवान मीर, चचा ग़ालिब, मियाँ दाग, अंकल फ़िराक, दादा फ़ैज़, मस्त जिगर, भइया मजाज़ ..और भी तमाम हैं जो जिम्मेदार हैं कुछ अच्छा बन पड़ा हो तो !
Monday, October 17, 2011
Friday, October 7, 2011
| आँखों में समाकर दिल में उतर गए |
| नाम पे मेरे जो महफ़िल में मुकर गए |
| उनके आने तक तो हम होश में ही थे |
| न जाने वो फ़िर कब और किधर गए |
| पूछा किये उनसे अपना पता अक्सर |
| फ़िर लेकर उन्ही से अपनी खबर गए |
| इन्ही आँखों ने उनको जाते हुये देखा |
| ऐसे भी कुछ हादिसे हम पे गुजर गए |
| बागबाँ से लड़ के गुलशन से अब हम |
| इसी शाम निकले नहीं तो सहर गए |
Wednesday, October 5, 2011
| साथ चलो तो वक्त सर पे उठा लेता है |
| आगे चलने की मगर ये सजा देता है |
| ये किताब भी किसी काम की न रही |
| हर कोई अब इसे माथे से लगा लेता है |
| पत्थरों का हो या हीरों का क्या फर्क |
| चाहे जिसका भी हो बोझ डुबा देता है |
| क्या क्या न सितम होते हैं ज़िंदगी में |
| आदमी मरने पे उसे खुदा बना देता है |
| सुनता तो नहीं कोई बातें मसीहा की |
| उसके पीछे से मगर रस्म चला देता है |
| लिख लिख के गज़ल लोग कहते हैं |
| मिसिर बस रामकहानी सुना देता है |
Sunday, October 2, 2011
| बड़ी मुश्किल है ये जो कभी मचल जाये |
| दिल कोई बच्चा तो नहीं जो बहल जाये |
| दोनों जहां भी देकर देखो इक बार इसे |
| शायद मान जाये शायद ये संभल जाये |
| इसने तो मेरा जीना हराम कर दिया है |
| कोई ले जाये ये दिल दूसरा बदल जाये |
| एक ही है तमन्ना इस दिल में बसी हुई |
| तुम आओ किसी रोज तो निकल जाये |
| जो तोड़ना हो दिल तो एक इल्तिजा है |
| ये देखना कहीं पता इसे न चल जाये |
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