Monday, March 1, 2010

मैयत पर उनको देख कर अपनी ये अफ़सोस हुआ
उनके आने का भरोसा होता तो पहले ही मर रहते
तीर कमाँ में और सैयाद कमीं में लाख हो उड़ जाते
दरवाज़ा कफ़स का खुला मिल गया होता पर रहते
रंगोखुशबू के बिना काँटों सा खूब जिये तो भी क्या
बेहतर था भले सुबह खिलते शाम तलक झर रहते
चुप बैठ के सहने से तो उसके ज़ुल्म कम होने न थे
सुनता न सुनता वो जाने तुम अपनी तो मगर कहते

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