वेद ओ कुरआन को हम भी कामिल समझते थे |
मील का पत्थर निकला जिसे मंजिल समझते थे |
उनकी भी सोहबत में गुज़ार के वक्त देख लिया |
अपने जैसे ही निकले जिन्हें काबिल समझते थे |
न हम उनकी जुबाँ समझे न वो मेरी जुबाँ समझे |
वीराना सा लगा मुझको जिसे महफ़िल समझते थे |
मरते रहने के सिवा तो कुछ न हुआ जिन्दगी से |
कैसे नासमझ थे जो मौत को कातिल समझते थे |
न ज़न्नत न दोजख कुछ न पाया मरने के बाद |
बेकार ही हम ज़िंदगी का ये हासिल समझते थे |
उसमे से कितना तो लहू इंसानियत का बह गया |
बस किताब ही निकली जिसे नाजिल समझते थे |
कामिल - पूर्ण |
खैरमकदम - स्वागत |
नाजिल - अवतरित |
भगवान मीर, चचा ग़ालिब, मियाँ दाग, अंकल फ़िराक, दादा फ़ैज़, मस्त जिगर, भइया मजाज़ ..और भी तमाम हैं जो जिम्मेदार हैं कुछ अच्छा बन पड़ा हो तो !
Friday, September 30, 2011
Wednesday, September 28, 2011
यहाँ कितनों को रहनुमाई का शौक है |
आदमी आज ढूँढे से जहाँ नहीं मिलता |
ये कैसी बहार है और कैसा है ये चमन |
एक भी फूल देखिये यहाँ नहीं खिलता |
इस कदर बेहिसी कि कटते रहें दरख्त |
पत्ता भी मगर इस बाग का नहीं हिलता |
हमारी नाफर्मानियों का हिसाब नहीं |
इतनी कि अब तो खुदा भी नहीं गिनता |
इतनी किताबें और इस कदर जाहिली |
बेहतर था मिसिर तू और नहीं लिखता |
Monday, September 12, 2011
अब इस दुनिया को जब फ़िर से बनाया जाएगा |
हुक्मरानों के सीनों में भी दिल लगाया जायेगा |
खेमों में बाँट रखना जालसाजी है सियासत है |
लकीरें जो हैं नहीं कहीं उनको मिटाया जाएगा |
अगर दिल में मुहब्बत हो तो फ़िर तेरा मेरा क्या |
पत्थर की दीवारों को शीशे से गिराया जायेगा |
सर को झुकाए रखना इंसानियत की तौहीन है |
गर्दन पर जब तलक है शान से उठाया जाएगा |
Thursday, September 8, 2011
सुबह की शाम हर शब की सहर होती है |
ये हकीकत तो हमपे रोज जबर होती है |
हर वक्त आने वाले पल का इन्तिज़ार |
जिन्दगी अपनी बस यूँही बसर होती है |
नहीं बच पाता है बीमार इश्क में कोई |
जब तक कि चारागर को खबर होती है |
आँखों में ही कटती है हमारे घर में रात |
उनके यहाँ तो पल भर में सहर होती है |
यहाँ जिन्दगी जब भी रहगुज़र होती है |
एक बस मौत ही तो हमसफर होती है |
Wednesday, September 7, 2011
Saturday, September 3, 2011
Friday, September 2, 2011
रोशनी नहीं है या कहो अन्धेरा है | |
हमको हरहाल ग़ुरबत ने घेरा है | |
सिवाय यादों के कुछ नहीं यहाँ | |
ये दिल है कि भूतों का बसेरा है | |
चंद मुर्दा मुलाकातों के एहसास | |
वक्त ने किस कदर मुंह फेरा है | |
कुछ खुशनसीबों को पता नहीं | |
जुल्फों के सिवा भी कुछ घनेरा है | |
दिल है तेरा मगर फ़िर भी दर्द है | |
न जाने क्या मेरा है क्या तेरा है | |
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मैंने दर्दो गम का मंज़र उकेरा है | |
कुछ भी नहीं जो हमेशा साथ रहे | |
क्या है यहाँ जिसे कहिये मेरा है |
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