Wednesday, December 21, 2011

बिगड़ी हुई तबीयत कभी यूँ भी संभलती है 
रात गए महफ़िल में ज्यूँ शम्आ मचलती है 
जीता भी है तो कैसे तू जिससे खफा हो बैठे  
आँख ही खुलती है बस सांस ही चलती है 
तक़दीर यहाँ सबकी हम जैसी नहीं होती 
किस्मत भी किसी के दरवाजे पे तरसती है 
जी भर नींद की फुर्सत नसीब किसे यहाँ  
इस दुनिया में तो बस आँख भर झपकती है 
खिरदमंदों ने हर पर्दा वा करने की ठानी है 
देखें किस तरह रुख से निकाब सरकती है 

Friday, November 11, 2011

कुछ इस तरह से जमाने ने मिटाया है 
ढूँढता फिरता मुझको मेरा ही साया है
कभी हँसे हैं लोग कभी तंज भी कसे हैं 
हमने बारहा जमाने पे तरस खाया है
खुद में होते तो फिक्र अपनी भी करते 
वक्त ने मुझको मेरे पास नहीं पाया है 
तुम आखिर क्यों इसका हिसाब करो 
मैंने भला क्या खोया और क्या पाया है 
न मानो तो किताबें खोल कर पढ़ लो 
अपने खुदा को तुम्ही ने तो बनाया है 

Monday, October 17, 2011

गर्दन झुकाई नजरें उठाई ज़रा मुस्करा दिया 
बिना तलवार उसने कितनों को गिरा दिया 
अक्सर तो ज़िंदगी में दोपहर की सी धूप थी  
जुल्फों की घनी छाँव ने सबको आसरा दिया 
छोटा बड़ा अच्छा बुरा नाम क्या बदनाम क्या 
वक्त के साथ जमाने ने सबको बिसरा दिया 
दुनिया में अबतक लड़के तो जीता नहीं कोई 
मुहब्बत करने वालों ने परचम लहरा दिया 
या तो लोग अपने ही दुश्मन हैं या बेवकूफ 
हमने मसीहाओं को ही कातिल ठहरा दिया 
किस खेत की मूली हो तुम आखिर मिसिर 
रोटी की फिकिर ने सबको यहाँ घबरा दिया 

Friday, October 7, 2011

आँखों में समाकर दिल में उतर गए 
नाम पे मेरे जो महफ़िल में मुकर गए 
उनके आने तक तो हम होश में ही थे  
न जाने वो फ़िर कब और किधर गए 
पूछा किये उनसे अपना पता अक्सर 
फ़िर लेकर उन्ही से अपनी खबर गए 
इन्ही आँखों ने उनको जाते हुये देखा 
ऐसे भी कुछ हादिसे हम पे गुजर गए 
बागबाँ से लड़ के गुलशन से अब हम 
इसी शाम निकले नहीं तो सहर गए 

Wednesday, October 5, 2011

साथ चलो तो वक्त सर पे उठा लेता है 
आगे चलने की मगर ये सजा देता है 
ये किताब भी किसी काम की न रही 
हर कोई अब इसे माथे से लगा लेता है 
पत्थरों का हो या हीरों का क्या फर्क 
चाहे जिसका भी हो बोझ डुबा देता है 
क्या क्या न सितम होते हैं ज़िंदगी में  
आदमी मरने पे उसे खुदा बना देता है 
सुनता तो नहीं कोई बातें मसीहा की 
उसके पीछे से मगर रस्म चला देता है 
लिख लिख के गज़ल लोग कहते हैं 
मिसिर बस रामकहानी सुना देता है 

Sunday, October 2, 2011

बड़ी मुश्किल है ये जो कभी मचल जाये
दिल कोई बच्चा तो नहीं जो बहल जाये
दोनों जहां भी देकर देखो इक बार इसे 
शायद मान जाये शायद ये संभल जाये 
इसने तो मेरा जीना हराम कर दिया है  
कोई ले जाये ये दिल दूसरा बदल जाये 
एक ही है तमन्ना इस दिल में बसी हुई  
तुम आओ किसी रोज तो निकल जाये
जो तोड़ना हो दिल तो एक इल्तिजा है 
ये देखना कहीं पता इसे न चल जाये 

Friday, September 30, 2011

वेद ओ कुरआन को हम भी कामिल समझते थे 
मील का पत्थर निकला जिसे मंजिल समझते थे 
उनकी भी सोहबत में गुज़ार के वक्त देख लिया 
अपने जैसे ही निकले जिन्हें काबिल समझते थे 
न हम उनकी जुबाँ समझे न वो मेरी जुबाँ समझे 
वीराना सा लगा मुझको जिसे महफ़िल समझते थे 
मरते रहने के सिवा तो कुछ न हुआ जिन्दगी से 
कैसे नासमझ थे जो मौत को कातिल समझते थे 
न ज़न्नत न दोजख कुछ न पाया मरने के बाद  
बेकार ही हम ज़िंदगी का ये हासिल समझते थे 
उसमे से कितना तो लहू इंसानियत का बह गया 
बस किताब ही निकली जिसे नाजिल समझते थे 
कामिल - पूर्ण 
खैरमकदम - स्वागत
नाजिल - अवतरित 

Wednesday, September 28, 2011

यहाँ कितनों को रहनुमाई का शौक है 
आदमी आज ढूँढे से जहाँ नहीं मिलता 
ये कैसी बहार है और कैसा है ये चमन 
एक भी फूल देखिये यहाँ नहीं खिलता 
इस कदर बेहिसी कि कटते रहें दरख्त 
पत्ता भी मगर इस बाग का नहीं हिलता 
हमारी नाफर्मानियों का हिसाब नहीं 
इतनी कि अब तो खुदा भी नहीं गिनता 
इतनी किताबें और इस कदर जाहिली 
बेहतर था मिसिर तू और नहीं लिखता 

Monday, September 12, 2011

अब इस दुनिया को जब फ़िर से बनाया जाएगा 
हुक्मरानों के सीनों में भी दिल लगाया जायेगा 
खेमों में बाँट रखना जालसाजी है सियासत है 
लकीरें जो हैं नहीं कहीं उनको मिटाया जाएगा 
अगर दिल में मुहब्बत हो तो फ़िर तेरा मेरा क्या 
पत्थर की दीवारों को शीशे से गिराया जायेगा
सर को झुकाए रखना इंसानियत की तौहीन है 
गर्दन पर जब तलक है शान से उठाया जाएगा 

Thursday, September 8, 2011

सुबह की शाम हर शब की सहर होती है
ये हकीकत तो हमपे रोज जबर होती है 
हर वक्त आने वाले पल का इन्तिज़ार 
जिन्दगी अपनी बस यूँही बसर होती है 
नहीं बच पाता है बीमार इश्क में कोई  
जब तक कि चारागर को खबर होती है
आँखों में ही कटती है हमारे घर में रात 
उनके यहाँ तो पल भर में सहर होती है 
यहाँ जिन्दगी जब भी रहगुज़र होती है 
एक बस मौत ही तो हमसफर होती है 

Wednesday, September 7, 2011

एक टुकड़ा प्यास को तरसता रहा पानी 
सहरां की तपती रेत पे बरसता रहा पानी 
कहाँ वो पहाड़ और अब ये नरक के घाट 
घर वापसी को बेचैन तडपता रहा पानी
पेड़ों की याद में जो हुआ करते थे कभी
गीली लकडियों सा सुलगता रहा पानी 
उतारा पहाड़ ने तो खुर्शीद की शह पर
फ़िर बादल पे चढ़ के मंडराता रहा पानी 

Saturday, September 3, 2011

महबूब की एक नज़र थी नहीं रही
जिंदगी बस एक सफर थी नहीं रही
और तो खैर क्या होता मर जाने से 
बेकार की खटर पटर थी नहीं रही
होना न होना नज़र का धोखा है
सागर में एक लहर थी नहीं रही 
सुना था कि जल्द सब ठीक होगा 
बासी सी एक खबर थी नहीं रही 

Friday, September 2, 2011

रोशनी नहीं है या कहो अन्धेरा है
हमको हरहाल ग़ुरबत ने घेरा है
सिवाय यादों के कुछ नहीं यहाँ 
ये दिल है कि भूतों का बसेरा है 
चंद मुर्दा मुलाकातों के एहसास 
वक्त ने किस कदर मुंह फेरा है 
कुछ खुशनसीबों को पता नहीं 
जुल्फों के सिवा भी कुछ घनेरा है 
दिल है तेरा मगर फ़िर भी दर्द है 
न जाने क्या मेरा है क्या तेरा है 
लोग कहते हैं ये अच्छी गज़ल है
मैंने दर्दो गम का मंज़र उकेरा है 
कुछ भी नहीं जो हमेशा साथ रहे 
क्या है यहाँ जिसे कहिये मेरा है

Thursday, September 1, 2011

दवाओं से न बन पड़े तो दुआ करे कोई
दुआओं का मारा हो तो क्या करे कोई
दो चार ही हों तो रास्ता दिखाये कोई
भटके हुये काफ़िले का क्या करे कोई
अँधेरा बहुत हो तो सूरज उतार लायें
बन्द खिड़कियों का क्या करे कोई
हरेक ख़्वाब हकीकत हो जाये अगर  
फ़िर किस उम्मीद पे जिया करे कोई

Tuesday, August 30, 2011

निपटेंगे दुश्मनों से खुद किसी तरह 
दोस्तों से खुदा मेरे बचाना हमें तुम 
दिल अगर हो भी तो शीशे का न हो
अबके इस तरह से बनाना हमें तुम 
आंधियों एक चिराग हूँ बस आखिरी  
खुद अपने हाथों से जलाना हमें तुम 
खबर करेंगे जब जख्म पुराने भरेंगे 
दोस्तों आके फ़िर से सताना हमें तुम

Thursday, August 25, 2011

कभी किसी की ज़िंदगी में ऐसी रात न हो
वो यूँ चले जा रहे हैं जैसे कोई बात न हो
मर जायेंगे अगर बोझ है ज़िंदगी लेकिन 
फ़िर क्या करेंगे जो ग़मों से निजात न हो 
अब फ़िर से बनाना मुझको तो इस तरह 
आँख में आंसू न हो सीने में जज्बात न हो 
क्यों खुश बैठ रहें अगर देनेवाला तू ही है 
जब तक हमारे कदमो में कायनात न हो 
लेकिन इन्ही लोगों का तो ये जिम्मा था  
ये देखना कि लोगों पे जोर ज़ुल्मात न हो 
बावजूद पहरे के कारवाँ लुट गया कैसे
देखो ये कहीं रहबर की करामात न हो

Monday, August 22, 2011

यूँहीं चले आये वो रस्म निभाने के लिए 
लकडियाँ काफी थी हमें जलाने के लिए
कुछ इस तरह सुनते रहे वो हमारी अर्ज
जैसे कोई लोरी गाता हो सुलाने के लिए
क्या जानिये कैसे रंग गया पंजा उनका
मेंहदी तो मिल पाई नहीं रचाने के लिए
ज़ाहिद के समझाने से तय हो गया अब 
यही एक चीज है पीने पिलाने के लिए

Tuesday, August 16, 2011

न बाँधो ज़ोर से मुट्ठी ज़िन्दगी रेत है फ़िसल जायेगी

कब्र की ओर नहीं तो बता ज़िन्दगी किधर जायेगी

जैसे ओस की बूँद है कांपती हुई घास की नोंक पर

ये ज़िंदगी बस एक हवा के झोंके से बिखर जायेगी

हारने को कुछ नहीं और जीतने को दुनिया पड़ी है

फिर नहीं कोई और बाज़ी अब इससे बेहतर आएगी

ज़िंदगी दरिया की मौज औ तिनके सी हस्ती अपनी

चाहें न चाहें हम ये तो ले ही जायेगी जिधर जायेगी

Wednesday, August 10, 2011

सोमरस कहते थे देवता जिसको 
आगे चलके वही शराब हो गई
पाक किताबों में ज़िक्र है इसका
हमने पी ली तो खराब हो गई 
खुशी हो या गम मसले बहुत हैं 
ये हर सवाल का जवाब हो गई
और ही ढंग से पिलाई साकी ने 
मैकदे में भीड़ बेहिसाब हो गई 

Tuesday, August 2, 2011

रहजनों की अगुआई में चल रहे हैं काफिले 
याँ किसी को आजकल रहबरी आती नहीं
उनके हक में है बीमार अच्छा न होने पाए
ऐसा नहीं कि उनको चारागरी आती नहीं
नाज़ो अंदाज़ तो अब भी खूब है दुनिया में 
लेकिन हर किसी को दिलबरी आती नहीं
हर एक बात पर संजीदा हो जाते हैं लोग 
समझ में किसी की मसखरी आती नहीं 
वही कहता है जो ग़ालिबो मीर कह चुके 
कहते हैं मिसिर को शायरी आती नहीं 

Thursday, July 28, 2011

किससे मांगिये कुछ भी
जहाँ मे कौन अमीर है
कुछ तो मांग है सबकी
हर एक यहाँ फ़कीर है
इश्के हकीकी के सिवा
दुनिया मे सब हकीर है
देखा नहीं उसे किसी ने
केवल वही बेनजीर है 
जिसके दम पे सब नूर है 
ये उसकी ही तस्वीर है

Tuesday, July 26, 2011

रहजनों की अगुआई में हैं काफिले 
दुनिया में आज कोई रहबर नहीं है
हुकूमत करने वाले थोड़े से लोग हैं 
बरबादी का जिम्मा सब पर नहीं है
उनके हक में है बीमार अच्छा न हो
ऐसा नहीं कि कोई चारागर नहीं है 
हर बात में सबसे ऊपर कौन है यहाँ 
आदमी आदमी से बढ़कर नहीं है 
भीड़ के धोके में मत रहना मिसिर 
कोई भी यहाँ तेरा हमसफ़र नहीं है 
कत्अः
बचे होते तेरी निगाह से तो कहते
इससे तेजतर कोई नश्तर नहीं है 
हमने भी करके देखा मीर साहब 
नशा होशियारी से बेहतर नहीं है 
उसकी कोई शक्ल है नहीं फ़िर भी  
कोई शक्ल उससे बेहतर नहीं है

Monday, July 25, 2011

उनकी बात ही सुना कुछ और है
हकीकत मैने जाना कुछ और है
तेरी साफगोई का भरोसा कर लूँ 
नज़र कहती मगर कुछ और है 
भली लगती है बात ज़ाहिद की 
मजमूने बयाँ मगर कुछ और है 
इंसान खुद को समझते हैं जरूर
हमारी हरकतें मगर कुछ और हैं 
ईमानदारी अच्छी बात है लेकिन 
जीने का तरीका तो कुछ और है
दीखता तो हम जैसा ही है मगर 
मिसिर आदमी ही कुछ और है 

Saturday, July 23, 2011

टिकी हो जिनकी रोज़ी रोटी मसलों पर
मसाइल रोज़ी रोटी के वे सुलझायें क्यों
हमदर्दी के सिवा कुछ कर सके है कौन
किसी को जख्म अपने दिखलायें क्यों 
जंजीरों को जेवर समझ के खुश हैं लोग
हकीकत मुश्किल हो तो समझाएं क्यों 
इनसे बेहतर होगा इनका बनाने वाला
इन सूरतों से फ़िर दिल को बहलायें क्यों
देखा तो नहीं किसी को लौट कर आते 
ये तय हो तो फ़िर मौत से घबराएं क्यों 
ठीक रस्ते पर ये दुनिया चल रही हो 
तो फ़िर नसीहतें मिसिर फरमाएं क्यों 

Friday, July 22, 2011

आदमी फूलों के ख़्वाब बुनता है
हकीकत में पत्थरों को चुनता है
कहते रहें कुछ भी आपकी मर्ज़ी 
वो तो जो चाहता है वही सुनता है
हर कोई मजे में है यहाँ सिवा मेरे
इसी गम में हर शख्स भुनता है
लोग नहीं बदलने वाले ज़रा भी 
मिसिर तू बेकार में सर धुनता है

Thursday, July 21, 2011

देख तो ये जहाँ अब भी है आबाद 
कुछ भी तो नहीं बदला मेरे बाद
ख़ाक थी मिल गई खाक में हस्ती 
रूह पहले भी थी और रही आज़ाद 
जो चल पड़े पा गए मंजिल आखिर
कुछ पत्थरों से करते रहे फ़रियाद 
रहनुमाओं की कमीं नहीं रही और 
हर दौर में ज़माना यूंही रहा बरबाद 

Monday, July 18, 2011

मंजिलें पूछती फिरती रहीं पता मेरा
नाकामी अपनी किस्मत थी सो रही
उनके वादे पे कभी ऐतबार नहीं रहा 
इन्तिज़ार अपनी आदत थी सो रही 
ज़िम्मा रहबरी का उठा लिया लेकिन
रहजनी उनकी फितरत थी सो रही 
मुसलसल ज़िक्रे-मय से हुआ मालूम 
ज़ाहिद की जो सोहबत थी सो रही 
मुहाफिज़ मुकर्रर किया गया हमको
ज़िंदगी उसकी अमानत थी सो रही 

Wednesday, July 6, 2011

शिकायतों का दौर खत्म हो तो कुछ बात करें
तोहमतों  पे जोर खत्म हो तो कुछ बात करें
मसले नाजुक हैं ज़रा गौर से सुनने होंगे 
गोलियों का शोर खत्म हो तो कुछ बात करें 
गड़े मुर्दे उखाड़ने से तो कुछ नहीं हासिल
लाशें बिछाना खत्म हो तो कुछ बात करें
झगड़ा हमारा है हमीं से सुलझेगा बेहतर
दखल गैर का खत्म हो तो कुछ बात करें
इंसानियत को तरक्की और अमन चाहिए 
बमों का खौफ़ खत्म हो तो कुछ बात करें 
खुद को डसने लगें हैं आस्तीनों के सांप 
अब उनके ठौर खत्म हों तो कुछ बात करें

Tuesday, July 5, 2011

मंजिलें पूछती फिरतीं हैं पता उनका
जो सिर्फ रास्तों के वफादार हो गए
मत ढूँढते फिरो कूये यार में दोस्तों
वो तो जाने कब के सरेदार हो गए
वफ़ा की उम्मीद तो हमें थी लेकिन
वो अपनी फितरत से लाचार हो गए
आदमी थे काम के सुना है हमने भी
एक मुद्दत से मिसिर बेकार हो गए

Monday, May 23, 2011

उम्र भर लोगों का तांता लगा रहा
हम कि अकेले ही उम्र गुजार आये
न हुई उनसे मुलाकात किसी तरह
कहने को हम करीब सौ बार आये
वक्त उठने का गुलशन से आ गया
मेरी बला से अगर अब बहार आये

Wednesday, March 30, 2011

दीनो मज़हब के मसाइल वो हल करते रहे
मुहब्बत जिनकी फितरत थी सो करते रहे
पता उनको भी था कहाँ रख दी जबीं उनने
सजदा आदत में था शुमार सो करते रहे
चंद गैर मुतमईन लोगों से है जिंदगी में रंग
तमाम बुजदिल तो जो मिली बसर करते रहे
बिन पेंदे के घड़े निकलीं ख्वाहिशें आखिर
बेवकूफ ही थे हम सब ता उमर जो भरते रहे
मालूम हमको भी थी जन्नत की हकीकत
ग़ालिब की तरह से कहने में मगर डरते रहे

Thursday, March 10, 2011

मस्जिदों में कहाँ मस्जूद
ख़ुद तक आ ख़ुदा हो जा
और तो सब हक़ीर ठहरा
पाना हो तो हक़ को पा
फ़ित्नागर ख़ामोशी तेरी
खुदाया लब कुशा हो जा
असर लफ़्ज़ों मे पैदा कर
बेबसों की सदा हो जा
आवारगी फ़ितरत जो हो
गुलशन मे सबा हो जा