Sunday, February 28, 2010

हजार बार बच के गुजर गये जिस जगह
न बचने का जी हुआ सो अब के गिर पड़े
मतलब तो खैर हमको आरामतलबी से था
सब जा रहे थे देखा तो हम भी चल पड़े
आह ये सुर्खरू ये ज़िन्दगी से भरे भरे बदन
चाहते तो हैं भले न इनसे छूटते बन पड़े

Saturday, February 27, 2010

लोग चले भी गये मना के ईद
हमे इन्तिज़ार ही रहा चाँद का
रात रात भर अटारी से बेशरम
चाँद चेहरा तके है मेरे चाँद का
अँधेरी रात है आज तो होता
अब भरोसा रहा नहीं चाँद का
अभी बाहों में छुपेगा देखना
कैसे रंग बदलता है चाँद का
इश्क की पाक नज़र की कसम
हमने देखा नहीं दाग़ चाँद का

Friday, February 26, 2010

नज़्म

पीना कुफ़्र समझने वालों
साकी से आँख चुराने वालों
खनखन प्याले की सुन डर जाने वालों
शबनम के कतरों से प्यास बुझाने वालों
करूँ ज़िक्रे चश्मे बहिस्त तुमसे तो कैसे करूँ
झूठ दिलासा देने वालों
बेमतलब समझाने वालों
सहर के गीत सुनाने वालों
देर शाम जाते हुये खुर्शीद ने जिसके बाद
फ़िर लौट के आने का वादा ही न किया हो
करूँ उस सियाह रात की सुबह आह तो कैसे करूँ
इत्र का सौदा करने वालों
बहार पे दाँव लगाने वालों
चमन के ख्वाब सजाने वालों
खुशबुयें आवारा हैं बह जाती हैं बह जायेंगीं
नाहक ही हवायें कसूरवार कही जायेंगी
तू ठीक ही कहने आई है ये बात ऐ सबा
फ़ूल का दिल तोड़ूँ तेरा मददगार बनूँ या
इश्क की रीत पर हुस्न का तरफ़दार रहूँ
करूँ ऐसे मुआमलात का हल तो कैसे करूँ
मोटी पोथी पढ़ने वालों
बड़ी किताबें लिखने वालों
फ़िक्रे दुनिया में जीने वालों
ज़िन्दगी हर कदम आज़माये चली जाती है
और इसी कशमकश में खत्म हुई जाती है
इधर या उधर कुछ न भी हासिल हो मगर
जब तक सरहदें हैं किसी ओर तो रहना ही है
गुल ही नहीं काँटों से भी निबाह करना ही है
बात सीधी सी है दिल भी लेकिन दिल ठहरा
करूँ इसको समझने पे मज़बूर तो कैसे करूँ

Thursday, February 25, 2010

जब तुम्हारे साथ पीता हूँ
मैं तुम्हारा साथ पीता हूँ
तौबा कर लेता हूँ भूल से
तौबा को भूलकर पीता हूँ
जीने को बीमार पीते होंगे
मैं पीने के लिये जीता हूँ
पीने का क्या खास दिन
हर शब हर रोज़ पीता हूँ
जाम भरकर खिसका भी दे
बुरा माने बगैर पीता हूँ
कैसे भी कोई पिलाये कभी
मैं बड़ी खुशी से पीता हूँ
बहिस्त मे पियाले हों न हों
मुँह से चुल्लू लगाके पीता हूँ

Wednesday, February 24, 2010

नज़्म

और तो खैर क्या गिला शिकवा अँधेरे से
मलाल ये ज़रूर है कि देख न सके हम
जाने किस अन्दाज़ में उसने हाँ कहा होगा

छलकते हुये पियालों को शर्म आ गई होगी
थरथराते लबों पर तबस्सुम छा गई होगी
परदा नहीं था और वो परदा कर रहा होगा
जाने किस अन्दाज़ में उसने हाँ कहा होगा

रेशमी आरिजों पर रंगे हिना छा गया होगा
वो शोख पत्थर का सनम पिघल रहा होगा
कली सा वो बदन चटक कर गुल बना होगा
जाने किस अन्दाज़ में उसने हाँ कहा होगा

मलाल ये ज़रूर है कि देख न सके हम
और तो खैर क्या गिला शिकवा अँधेरे से
यूँ चले आओ चुपके से किसी को खबर न हो
गुजारने को बस एक रात जिसकी सहर न हो
जिस के बगैर गुज़ारना मेरे लिये भी गुनाह है
खुदा करे उसका मेरे बगैर पल भर गुज़र न हो
किस्मत मे अबके लिखना जो मन का हो मेरे
सीने मे दिल और दिमाग मे कोई हुनर न हो
कहाँ चल दिये घर से ठंड में सुबह इबादत को
बता दे कोई तो ऐसी जगह खुदा जिधर न हो
लें मोल जो पढ़ना चाहें खुली किताब मै नहीं
रहने ही दीजिये इतनी भी कुव्वत अगर न हो

Tuesday, February 23, 2010

बनेगी उनसे अब किसी सूरतेहाल नहीं
हम हर हाल राज़ी वो किसी हाल नहीं
बात करते हो चाँद की उनके मुकाबिल
ठहर सके कहीं आईना भी मजाल नहीं
होली की मस्तियों से है उनका ये रंग
मला किसी ने रुखसार पे गुलाल नहीं
बरबाद है जमाना उनकी बेखयाली से
इस बात का उन्हे ज़रा भी खयाल नहीं
होना सभी को एक दिन खाके राह है
नाचीज़ होने का मुझे ज़रा मलाल नहीं
मीर गालिब जिगर फ़िराक को पी गया
लिख पाता हूँ कुछ तो कोई कमाल नहीं

Monday, February 22, 2010

बाँधो ज़ोर से मुट्ठी ज़िन्दगी रेत है फ़िसल जायेगी


कब्र की ओर नहीं तो बता ज़िन्दगी किधर जायेगी

जैसे ओस की बूँद है कांपती हुई घास की नोंक पर

ये ज़िंदगी बस एक हवा के झोंके से बिखर जायेगी

हारने को कुछ नहीं और जीतने को दुनिया पड़ी है

फिर नहीं कोई और बाज़ी अब इससे बेहतर आएगी

ज़िंदगी दरिया की मौज औ तिनके सी हस्ती अपनी

चाहें न चाहें हम ये तो ले ही जायेगी जिधर जायेगी

Sunday, February 21, 2010

मानता हूँ नहीं मै किसी की
ये बात तुमने ठीक ही की है
अपने बीमार को छोड़ दिया
क्या खूब चुन के दवा की है
भँवरे का कसूर नहीं इसमे
फ़ूल की खामोश रज़ा भी है
गुनाह तो होना ही चाहिये
आखिर इश्क मे मजा भी है
सब कुछ बुरा नहीं शराब में
अरे ज़ाहिद इसमे नशा भी है

Saturday, February 20, 2010

कुर्सी पर उठते हैं लोग
नज़रों में गिरते हैं लोग
शायद कहीं जीते भी होंगे
यहाँ सिर्फ़ मरते हैं लोग
नहीं सिमटते दीवारों मे
दिल में भी रहतें हैं लोग
किस दुनिया में रहते होंगे
जिन्हे प्यार करते हैं लोग
ख्वाबों मे आते हैं लोग
मगर जान लेते हैं लोग
माने ना जाने सब कोई
इश्क बुरा होता है रोग
उनकी न सुनियो अपनी
कहाँ तुम कहाँ सब लोग
तू तो अरे खुदा होता था
तुझसे क्यों डरते हैं लोग

Friday, February 19, 2010

कुछेक साल पहले की

(1)

न हुए न सही पूरे
फ़िर नए ख्वाब बुनें
हम कहें तो कैसे कहें
वो सुनें तो क्यों सुनें
बहुत हो गई मसीहाई
अब हम आदमी बनें
मिले तो जिंदा यहाँ
सिर्फ़ दो चार जने
चली कि कटी जुबाँ
क्या कोई बात बने
वो इधर देखने लगे
अब हम दिन गिनें

(2)

रस्म निभाने आ पहुँचे
अपने ही जलाने आ पहुँचे
उनको बुलाने दोस्त मेरे
गैर के घर पे जा पहुँचे
मेरे मर जाने की मुझको
खबर सुनाने आ पहुँचे
मुझसे पहले मेरे चर्चे
उन के दर पे जा पहुँचे
छोड़ आये थे जो चेहरे
मुझे डराने आ पहुँचे
हम तौबा कर बैठे जब
पीने के बहाने आ पहुँचे

(3)

ज़िन्दगी मुश्किल है न आहें भरो
जियो तो जियो या मरो तो मरो
न बुझी है पिलाने से प्यास साकी
ख़ुद के लिये भी कभी जाम भरो
चाहता तो हूँ कि मिल जाओ तुम
फ़िर मगर क्या करो क्या न करो

(4)


समन्दर की जो प्यास लिये फ़िरते हैं
वो अक्सर पोखरों से फ़रियाद करते हैं
चमन को होगी लहू की ज़रूरत वरना
लोग यूँही कब मुझ को याद करते हैं
तेरे ठिकाने का पता नहीं अभी हमको
सर अपना हर दर पे झुकाया करते हैं
होशियार रहें जो चढ़ने की ठान बैठे हैं
ऊँची जगहों से ही लोग गिरा करते हैं
बन गई है यहाँ मस्जिद मैखाना हटाके
लोग अब कम ही इस तरफ़ गुजरते हैं
क्या क्या गुजरती है हुस्न पर देखिये
खूबसूरत फ़ूल बाजार मे बिका करते हैं


(5)


कुछ काम का नहीं मेरे हुये न तुम
कुछ काम का नहीं मेरे हुये जो तुम
मुद्दतों बैठे रहे हम राह देखते तेरी
ऒर पहलू मे मुद्दतों बैठे रहे हो तुम
रुकते नहीं किसी के लिये ऎ वक्त
क्यूँ मेरे लिये ही ठहर गये हो तुम
कुछ भी मेरा नहीं जब दुनिया में
क्यूँ ऐ दर्द फ़िर मेरे हुये हो तुम
हम अब भी गुनाह करते हैं अदम
यही राह आदमी को दे गये हो तुम


(6)


माना कि ज़िन्दगी का हासिल मौत है
ऐसा भी क्या कि अभी से मर जाइये
न कुछ और बन पड़े तो रोइये ज़ार ज़ार
घुट घुट के बेकार क्यों कलेजा जलाइये
सर तो जायेगा अभी नहीं तो फ़िर कभी
कुर्बान जाइये किसी पे क्यों बोझा उठाइये
क्या हुआ दिल टूटा काँच की ही चीज़ थी
किरचों पर इन्द्रधनुष फ़िर नया सजाइये
फ़िर होश मे आने को हैं चाहने वाले तेरे
उठिये सँवरिये निकाब रुख से हटाइये
बात अगर मान जायें वो मेरी एक बार
यही कि एक बार बात मेरी मान जाइये
कुछ नहीं मिलता है आसान राहों पर
मुश्किलें न हों अगर तो लौट जाइये


(7)


हम जो बन सके करते हैं
वो जो मन करे करते हैं
है रोशन किसी से जहाँ
ऒर कुछ यूँही जलते हैं
कुछ को तेरा दर नसीब
बाकी दर बदर भटकते हैं
मस्जिद मे जा बिगड़े हुये
मैखानों मे आ सुधरते हैं
क्यों जीते हैं खुदा जाने
जो न किसी पे मरते हैं
सुन ऎ दिल धीरे से चल
अभी वो आराम करते हैं
खाक होकर आशिकी में
हम दिलों पे राज करते हैं


(8)


तमन्नाओं के पर कतर दो
आहों को बेअसर कर दो
चलो कर दो रवाना कारवाँ
फ़िर रहजनो को खबर दो
भूखमरी से बच रहे ढीठ
चलो अब उनको जहर दो
जिन्हें दीखता नहीं हुस्न
इश्क की उन्हें नज़र दो
आवाम की भी मानो तो
एक सियासत लचर दो
कन्धें नाजुक हैं लोगों के
हमे घर मे दफ़न कर दो


(9)



मुहब्बत में कोई मंजिल कभी गवारा न हो
ये वो दरिया निकले जिसका किनारा न हो
अकेले आये थे अकेले चले भी जायेंगे मगर
इस जमीं पर तेरे बिन अपना गुजारा न हो
कभी तकरार भी होगी हममे और प्यार भी
न बचे आखिर शख्स कोई जो हमारा न हो
बेशक ज़िन्दगी गुज़रे यहाँ की रंगीनियों मे
भूल जायें तुझे एक पल को खुदारा न हो
नज़र का फ़ेर है बुरा जो कुछ दिखे यहाँ
नही कुछ भी जो खुद तुमने सँवारा न हो


(10)


बैशाखियों को पर बनाने का हुनर आना चाहिये
कैसे ज़िन्दगी करें हर हाल बसर आना चाहिये
माना कि अब नहीं रहा वो जो वक्त अच्छा था
ये भी तो दिन दो दिन मे गुजर जाना चाहिये
न देखो राह मै एक चिराग था जल चुका बस
कोई सूरज तो नहीं जो लौट के आना चाहिये
याद आ जायेगा उन्हे बहाना कोई शबे वस्ल
मौत को भी तो आने का कोई बहाना चाहिये
इधर आदमियों की तेज़ है पैदावार धरती पर
अब ज़ल्द ही कोई इन्सान नज़र आना चाहिये


(11)


युग बीत गये केवल कहते कहते
अब सच मे भाईचारा दिखाइये
जला डालिये कड़वाहट के बीज
प्रेम ऒर दया के फ़ूल खिलाइये
सबकी खुशियों मे शरीक होइये
बोझ दुखों का मिल के उठाइये
झगड़ों को बीती बात बनाइये
पड़ोसियों को तरफ़दार बनाइये
ये जमीन स्वर्ग बन सकती है
अपने भीतर का दिया जलाइये
हर इन्सान दीपावाली मना सके
एक ऎसी भी दीपावली मनाइये


(12)


लेके पत्थर इधर आते हैं लोग
शायद हमने सही बात कही है
जी मे है कि तुमसे बात करें
कहने को तो कोई बात नहीं है
नज़र का फ़ेर है तेरा होना भी
तू हर जगह है फ़िरभी नहीं है
मर मिटे जब उनके लिये हम
कहते हैं कि तू कुछ भी नहीं है
करता है ढेरों सवाल मेरा दिल
पर तुम्हारा कोई जवाब नहीं है


(13)


कुछ तो यूँही यहाँ जीना आसान न था
और फ़िर तूभी तो मुझपे मेहरबान न था
महज़ दो ही परेशानियाँ इश्क में हुईं हमें
चैन दिन को नहीं रात को आराम न था
मीर का दिलबर दर्द का चारा जाने था
अपना भी मगर कोई ऐसा नादान न था
झूठ नहीं फ़रेब नहीं दगा नहीं न मक्कारी
पास मेरे तो कोई जीने का सामान न था
पाँव टूटने का हमे गिला होता क्योंकर
अफ़सोस उस गली में मेरा मकान न था



(ये सब मेरे दूसरे ब्लॉग तत्वमसि पर भी हैं)

करीब सन २००० के आसपास की लिखी हुई

दर्द बढता है तो
मुस्कराते क्यों हो
मुझे देखकर नज़रें
चुराते क्यों हो
मैं गुनहगार नहीं
फ़िर सताते क्यों हो
क्या मिलता है तुम्हे
मुझे रुलाते क्यों हो
सोचता हूँ इतना
याद आते क्यों हो
युँही कम गम नहीं
और बढाते क्यों हो
प्यार है गुनाह नहीं
इसको छुपाते क्यों हों



(ये मेरे दूसरे ब्लॉग तत्वमसि पर भी है)